क्योंकि आप नदी को नाला मान लेते हैं!

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आनंद कुमार

रामायण में जब ऋषि विश्वामित्र, तड़का वध के बाद राम और लक्ष्मण के साथ सोन नदी कि ओर बढ़ते हैं तो रास्ते में उनका परिचय अपनी बड़ी बहन से भी करवाते हैं। वो बताते हैं कि सत्यवती नाम से भी जाने जानी वाली उनकी बहन ऋचीक मुनि की पत्नी थी और सशरीर ही स्वर्ग गयी थीं। महानदी कौशि के रूप में धरती पर वो ही अवतरित हुई हैं। इसके पीछे भी थोड़ी सी कहानी है।

कथाओं के मुताबिक ऋचीक मुनि राजा गाधी के पास गए और उनकी पुत्री से विवाह का प्रस्ताव रखा। गाधी राजा थे और उन्हें ऋचीक गरीब लगे, तो इनकार करते हुए उन्होंने कहा कि अगर ऋचीक 1000 ऐसे घोड़े ले आयें तो हवा कि तरह तेज हों, रंग में पूरे श्वेत हों, सिर्फ एक कान काला हो, तो वो सत्यवती का विवाह ऋचीक से कर देंगे। राजा गाधी को लगा था गरीब किसी तरह ये मांग तो पूरी नहीं कर पायेगा।

ऋचीक वहां से निकलकर वरुण के पास पहुँच गए और उनसे ऐसे अश्व मांगे। गंगा के पास से, कन्नौज के अश्वतीर्थ नाम कि जगह पर ऋचीक को ऐसे हज़ार घोड़े मिले थे। घोड़े देकर ऋचीक ने सत्यवती से विवाह किया था। सत्यवती राजा गाधी की इकलौती संतान थी और उसकी प्रबल इच्छा थी कि उसके और भी भाई बहन हों। सत्यवती की माँ ने जब बताया कि उसके पति ऋचीक तो बड़े ऋषि हैं और उनकी कृपा से ऐसा हो सकता है तब सत्यवती ने ऋचीक को अपनी इच्छा बताई। ऋचीक ने दो प्रसाद दिए और कहा एक क्षत्रिय गुणों वाले पुत्र के लिए है और दूसरा ब्राह्मण स्वभाव वाले के लिए। सत्यवती की माँ ने सोचा कि जरूर ऋचीक ने बेहतर वाला अपनी पत्नी के लिए रखा होगा इसलिए उसने प्रसाद के पात्र बदल लिए।

 

नतीजा ये हुआ कि ब्राह्मण स्वभाव वाले विश्वामित्र का राजकुल में जन्म हुआ। दूसरी तरफ जब सत्यवती को पता चला कि उसने उल्टा प्रसाद खा लिया है तो वो भागी भागी ऋचीक को असर रोकने के लिए कहने गयी। ऋचीक ने बताया कि असर रोका नहीं, ज्यादा से ज्यादा, टाला जा सकता था। पुत्र नहीं तो पौत्र क्षात्र स्वभाव वाला होगा। सत्यवती ने यही स्वीकार किया और उनके पुत्र थे जमदग्नि जो ऋषि हुए, पोते थे उग्र स्वभाव के परशुराम।

इस तरह सत्यवती ऋषि विश्वामित्र की बहन थी। इसके अलावा भी एक ब्रह्मा से जुड़ी कहानी आती है, जो कहती है कि धरती पर पहले मृत्यु नहीं थी। कोई मरता ही नहीं तो सृष्टि कि व्यवस्था बिगड़ जाती इसलिए ब्रह्मा ने मृत्यु को अवतरित होने का आदेश दिया। कौशिकी नदी के रूप में मृत्यु का काम करने के लिए कौशिकी उतरना नहीं चाहती थी। आदेश से बाध्य आखिर उसे ये काम करना स्वीकार करना पड़ा।

समय के बदलने के साथ मानव का स्वभाव भी बदला है। पुरातन कथाएँ जहाँ नदियों को जीते जागते मनुष्यों का सा दर्जा देती हैं, वहीँ आज के मानव उन्हें नदी से भी गिराकर नाले के स्तर पर ले आये हैं। अज्ञात कारणों से ये मान लिया गया है कि नदी स्थायी होती है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं आता। उसकी धारा आज जहाँ है कल भी वहीँ होगी ये मानकर उसके किनारे तटबंध भी बनाने में करोड़ों रुपये फूंक दिए गए हैं।

प्रमाण कुछ और ही कहते हैं। सिर्फ दो सौ साल के नक़्शे भी देख लें तो कोशी नदी कई किलोमीटर खिसक चुकी है। कल जहाँ तटबंध था, वो आज किसी काम आएगा या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं है। सवाल ये है कि हम नदियों को नाला मानकर ये तटबंध में उसे घेरने की मूर्खतापूर्ण कोशिश कब बंद करेंगे?

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