मीडिया की गैस लाइटिंग

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मिथिला की बात हो तो वहां कि शादियों कि चर्चा भी जरूर होती है। इस इलाके में बाराती खाने कि क्षमता के लिए भी जाने जाते हैं। जिन्होंने सिर्फ सुना है, देखा नहीं, उनके लिए ये हजम करना भी मुश्किल होता है कि कोई खाना खाने के बाद भी 150-200 रसगुल्ले, 25-50 मालदह आम और चार पांच किलो दही खा सकता होगा। लेकिन ये होता है, और चूँकि इतना भोजन कोई दस-बीस मिनट कि बात नहीं होती इसलिए घंटे दो घंटे वर और वधु पक्ष के लोग एक दूसरे पर तीखे व्यंग-कटाक्ष भी करते रहते हैं।

कम खाने वालों पर खाने को लेकर किया जाने वाला एक व्यंग होता है, तो ज्यादा खाने वालों पर दूसरा दागा जाता है। कम (यानि सामान्य पांच-दस रसगुल्ले) खाने वालों के लिए कहा जाता है “ये लोग कुछ काम धाम नहीं करते!” अर्थात शारीरिक श्रम करते ही नहीं तो खाना पच नहीं पायेगा, इसलिए कम खाते हैं। दूसरी तरफ जो ज्यादा खाने वाले हैं उनके लिए कहते हैं “इन्होंने जीवन में कभी देखा ही नहीं!” यानि बहुत गरीबी में हैं, कभी खाने को मिला नहीं तो आज ही जितना हो सके खा कर तृप्त हो जाना चाहते हैं।

मतलब आप सामान्य खाएं या ज्यादा, गलती आपकी ही है, मजाक उड़ाया ही जाएगा। सदियों से जो ये आपसी मजाक में टाल दिया जाता है, उसके लिए अंग्रेजी में एक जुमला भी होता है। “गैसलाइटिंग” नाम का ये शब्द एक फिल्म के नाम के आधार पर गढ़ा गया था। उसमें खलनायक एक लड़की को इतनी बार उसकी गलती दिखाने की कोशिश करता है कि अंततः नायिका मानने लगती है कि कुछ भी गलत हुआ तो उसी से हुआ होगा। हर बात के लिए वो खुद को ही कसूरवार मानने लगती है।

मीडिया का आज का दौर देखिये तो भी यही गैसलाइटिंग नजर आएगी। राडिया टेप कांड तो पेड मीडिया की हरकत थी ना? तेजपाल पर मुक़दमे कि सुनवाई अभी हाल में शुरू हुई है। दूसरे मिडिया संस्थानों में भी महिलाओं के शोषण और आत्महत्या कि कोशिशों तक की खबर आती रही है। एक आम दर्शक-पाठक भी बता देगा कि कौन सा चैनल, कौन सा समाचार किस ख़ास “विचारधारा” के मुखपत्र का काम करता है। विदेशों में लिपमेंन जैसे लेखकों ने बरसों पहले ही शोध कर के “पब्लिक ओपिनियन” जैसी किताबें लिखी हैं।

भारत में देखिये तो आंबेडकर के लिखे में भी मीडिया के बिकाऊ होने का जिक्र है, लोहिया और जे.पी. ने ये आरोप लगाये हैं। नए दौर के नेताओं में से कौन है जिसने पेड मिडिया की नैतिकता पर सवाल नहीं उठाये? किस्मत से ये सवाल उठाने कि क्षमता अब आम जनता के हाथ में भी आ गई है। वो सोशल मीडिया पर ऐसे सवाल करते हैं और लहजा इतना साफ़ है कि वो “प्रेस्टीटयूट” और “प्रेश्या” जैसे अमर्यादित शब्दों के इस्तेमाल से भी परहेज नहीं रखते। “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” अब अभिजात्य पत्रकारिता घरानों तक सिमित नहीं रही।

किसी के भी सवाल उठा देने की इस क्षमता से अभिजात्य बड़े पत्रकार बड़े आहत हुए हैं। उनका विलाप उनके ब्लॉग में, लेखों में, बयानों में झलकता रहता है। अब सवाल उठाने पर वो सीधा “कौन जात हो?” भी पूछने लगे हैं। ऐसे चैनलों के पास करोड़ों के फण्ड भी हैं, वो बरसों नुकसान झेलते हुए भी लाखों की तनख्वाह बांटते रहे हैं। टुकड़े फेंकने की उनकी क्षमता इसमें भी दिखती है कि लाखों रुपये महिना की जो रकम कुछ 60-70 लोगों में बांटी गई उसकी चर्चा सुनाई देने लगी है। अब अपनी दही को वो खुद खट्टा कैसे कहें?

तो नैतिकता के इन स्वयंभू ठेकेदारों को याद आ गया कि उनके पास आर्थिक सामर्थ्य और बड़े गिरोह भी हैं। वो गरीब कि बीवी के कान के सोने के झुमके को भी पीतल कह सकते हैं। चुनावों को ही नहीं, जनता कि सोच को टीवी डिबेट से लेकर सम्पादकीय के लेखों के जरिये प्रभावित करने की अपनी करतूतों को ढकने के लिए अब वो सोशल मीडिया पर डाटा चोरी की सनसनी बना रहे हैं। सवाल ये है कि हम आम लोगों के पास है ही क्या जो कोई ले जाएगा? लाख-करोड़ के लेन-देन का खुलासा तो अभिजात्य के डाटा से होगा।

डाटा चोरी समस्या नहीं, समस्या उस डाटा का नाजायज इस्तेमाल है। जिन्होंने उसके नाजायज इस्तेमाल से पैसे कमाए हैं सवाल तो उनके नामों का उठाना चाहिए? रुख से जरा नकाब हटाओ तो कोई बात बने!

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