“मेरी एक बेटी है 4 साल की । मुझे भी हर पिता की तरह यह जिज्ञासा होती थी कि वो कब बोलेंगी, कब चलेगी। इसके जवाब में मेरी दादी ने कहा कि यह 6 महीने में चलने लगेगी, लड़कियां, लड़कों की तुलना में जल्दी चलती है, जल्दी बड़ी हो जाती हैं। बाद में पता चला कि इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं हैं।”
आमतौर पर बच्चों की परिभाषा को लेकर लोगों में असमंजस की स्थिति होती है। 20 नवंबर 1989 को पारित संयुक्त राष्ट बाल अधिकार समझौते के अनुसार 18 साल से कम उम्र का हर व्यक्ति बच्चा है । 2013 में केंद्र के द्वारा लागू किए गए राष्ट्रीय बाल नीति में भी 18 साल से कम उम्र को बच्चा कहा गया है।
भारत के कुछ कानूनों को छोड़कर अधिकांश कानूनों के अनुसार 18 साल का हर व्यक्ति व्यस्क है। उसे वोट देने का अधिकार हैं, वाहन चलाने का अधिकार है, संपति खरीदने का और बिना किसी भेदभाव के किसी भी सरकारी सुविधा का लाभ उठाने का।
बिहार के साथ ही पूरे भारत में बाल विवाह एक बड़ी समस्या है। नेशनल फैमली हेल्थ सर्वे 4 के अनुसार बिहार में 20 से 24 साल की 39 प्रतिशत महिलाएं ऐसी हैं जिनकी शादी 18 साल से पहले हो गई थी जो राष्टीय औसत 26.8 फीसदी से काफी ज्यादा है। बाल विवाह के लिए अगर कानून की बात करें तो भारत में 18 साल से कम उम्र की लड़की और 21 साल से कम उम्र के लड़के की शादी गैरकानूनी है।
समाज में तो यह धारणा है कि लड़कियां, लड़कों की तुलना में ज्यादा जिम्मेवार होती है। परिवार और समाज स्तर पर व्याप्त यह कुधारणा तो समझ में आती हैं पर कानून में लड़की और लड़के में फर्क और वो भी एक केंद्रीय कानून में। एक तरफ तो सरकार महिलाओं/किशोरियों के अधिकारों के लिए बात करती हैं, विभिन्न योजनाएं ला रही हैं और उनके स्वावलंबीकरण और सश्क्तिकरण के लिए प्रतिबद्ध है। सरकारें, एक तरफ तो किशोरियों की उच्च शिक्षा और उनके लिए निजी क्षेत्रों में भी आरक्षण की वकालत कर रही हैं और दूसरी तरफ बाल विवाह कानून में बालिग लड़के और लड़की की उम्र में 3 साल का अंतर, समाज में व्याप्त उसी कु-धारणा को दिखाता है।
एक तरह तो बाल विवाह कानून के अनुसार हर बाल विवाह तब तक NULL और VOID नहीं हो सकता जब तक दोनों में से कोई एक पक्ष बालिग होने की उम्र के दो साल के अंदर कोर्ट में जाकर अपनी शादी को समाप्त करने के लिए आवेदन न दें। भारत में कर्नाटक पहला राज्य हैं जहां राज्य सरकार ने अपने कानून में बदलाव/ संशोधन कर बाल विवाह के तहत होने वाली शादियों को NULL और VOID करने के लिए कोर्ट में जाने और आवेदन देने की प्रक्रिया को समाप्त कर दिया है।
इस विवाह के बाद हुए बच्चे पूर्ण रूप से कानूनी होते हैं और उन्हें मां-बाप की संपति में हिस्सा होता है। इस कानून में लड़कों और लड़कियों की उम्र के अंतर को एक उदाहरण से समझें। अगर लड़के की उम्र 19 साल की है और लड़की की उम्र 17 साल 6 महीने है और अगर उनके बीच सहमति से भी संबंध बनता हैं तो वो बच्चों की बेहतरी के लिए बनाएं गए भारत के एक कानून के अनुसार सजा का हकदार होगा। जी चौंक गए न, पाक्सो एक्ट के अनुसार 18 साल से कम उम्र के किसी भी बच्चें के साथ सहमति के बाद भी संबंध बनाना कानूनी अपराध है।
अगर इस बाल विवाह कानून के बनने, संशोधित होने की प्रक्रिया का अध्ययन करेंगें तो यह सामने आता है कि लॉ कमीशन और महिला और बाल विकास मंत्रालय ने इसे दोनों के लिए समान रूप से 18 साल रखने का सुझाव दिया था। लेकिन जनप्रतिनिधियों ने इसपर आपत्ति जताई थी। उनका तर्क था कि बाल विवाह की जड़े हमारे समाज में बहुत गहरे तक हैं ऐसे में बाल विवाह के तहत होने वाली शादियों को शादी नहीं मानना शायद सही नहीं होगा। हालांकि अभी सुप्रीम कोर्ट ने भी होने वाले बाल विवाहों को NULL और VOID मानने का सुझाव दिया है।
शायद लड़के और लड़कियों की विवाह की कानूनी उम्र में अंतर रखने का कारण कहीं न कहीं हमारे पितृसत्तामक समाज में बेटों को सुरक्षित और संरक्षित रखने की मनोवृति हैं। आमतौर पर यह भी धारणा हैं कि अगर पति से पत्नी छोटी होगी तो उसकी सेवा करेंगी और खास कर बुढापे की स्थिति में। यह कहानी हैं हमारे उस समाज की जहां आज भी हमारे सेविंग का पैसा बेटों के पढ़ाई और बेटियों के शादी के लिए होता हैं, जहां बेटियां आज भी पराया धन और बेटे , हमारे बुढ़ापे का सहारा होते हैं।
पिछले दो दशकों में बाल विकास से जुड़ें मुद्दों में काफी प्रगति हुई है पर अब भी हमें जरूरत है , बच्चों के लिए अपनी प्रतिबद्धता को बरकरार रखने और बच्चों से जुड़े कानूनों की इस प्रकार के कमियों को दूर करने और एक समाज को सभी के बराबर होने के संदेश देने का।