चुनावों के बाद तो जल संकट से निबटे अपना देश

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लोकसभा चुनावों में व्यस्त देश को आगामी 23 मई को इनके नतीजों के आने के बाद जल संकट से जुड़े सवाल पर गहराई से सोचना होगा। भले ही चुनावों में राजनीतिक दलों में वैचारिक मतभेद रहते हैं, पर जल संकट का सामना करने के बिंदु पर तो कोई मतभेद हरगिज नहीं होने चाहिए। देश वास्तव में भीषण जल संकट से जूझ रहा है। गर्मियों में मांग बढ़ने के कारण स्थिति और भी बदतर हो जाती है। एक अनुमान के मुताबिक देश के 60 करोड़ आबादी को आज के दिन भीषण जल संकट का सामना करना पड़ रहा है। नीति आयोग का तो यहां तक कहना है कि देश के 70 फीसद घरों में साफ पेयजल नहीं मिल रहा है। ये दोनों ही आंकड़े किसी को डराने के लिए पर्याप्त हैं। इनसे समझा जा सकता है कि देश में जल संकट कितना विकराल रूप ले चुका है। हैरानी तो यह होती है कि जल संकट इस लोकसभा चुनाव का कोई मुद्दा ही नहीं बना पाया।

दक्षिण अफ्रीकी शहर केपटाउन को जल संकट ने कहीं का नहीं रहने दिया है। वहां पेयजल राशन से मिल रहा है। दुनिया का इतना खूबसूरत शहर बूंद-बंद को तरस रहा है। हमारे अपने देश के कई शहर भी अब तो केपटाउन के रास्ते पर चल पड़े हैं। जल संकट ने सुंदरवादियों वाले पर्यटन केन्द्र शिमला से लेकर मुंबई और दिल्ली को भी अपनी चपेट में ले रखा है। मोटे तौर पर धरती के नीचे से पानी को बेतहाशा तरीके से निकाला जा रहा है। धरती की कोख को बांझ किया जा रहा है। न मालूम हमें कब यह समझ में आएगा कि अगर हम इसी तरह से पानी का दुरुपयोग करते रहे तो हमें पानी मिलेगा ही नहीं। केपटाउन बन्दरगाह, बाग-बगीचों व पर्वत श्रृंखलाओं के लिये मशहूर रहा है। लेकिन पानी की बर्बादी ने उसे चौपट कर दिया। हमारे यहां हर रोज लाखों कारों की धुलाई में कितना पानी बर्बाद हो जाता है, इसका अंदाजा तक लगना असंभव है।

गर्मी के महीनों की शुरुआत होते ही शिमला जलसंकट का सामना करने लगता है। इस दौरान घरों के नल सूखने लगते हैं। शहर के लगभग सभी मुख्य क्षेत्रों में टैंकरों से पानी भेजा जाता है। स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि पानी की कमी के कारण शिमला शहर के बहुत से रेस्टोरेंट बंद हो गए हैं। दरअसल शिमला में 1875 में पहली बार पानी की आपूर्ति चालू हुई थी। तब करीब 10-12 हजार लोगों के लिए पानी की आपूर्ति की व्यवस्था की गई थी। आज शिमला की आबादी दो लाख से अधिक हो गई है। इसके अलावा यहां रोज हजारों टूरिस्ट भी आते हैं। ऐसी हालत में संकट तो होना ही था।

मुंबई में भी जल संकट अब स्थायी रूप ग्रहण कर चुका है। मुंबई में रोज 3,800 मिलियन लीटर जल आपूर्ति की जाती है, लेकिन महानगर को रोज 4,200 मिलियन लीटर पानी की जरूरत होती है। यानी जो महानगर अरब सागर के तट पर है, वो पानी की कमी से जूझ रहा है।
अब दिल्ली की ओर चलते हैं। अरविंद केजरीवाल चाहे दिल्ली को मुफ्त पानी देने के लाखों वादे कर लें, पर सच्चाई यह है कि राजधानी की एक बड़ी आबादी बंद-बूंद पानी के लिए रोज ही तरसती है। राजधानी में पानी के लिए अनेकों हत्याएं तक हो चुकी हैं। समूचे दक्षिण दिल्ली में सदैव भीषण जल संकट बना रहता है। देश की सबसे पॉश कॉलोनियों से लेकर जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी कैंपस तक का यही हाल है। ये ही स्थिति बाहरी दिल्ली और ग्रामीण इलाकों में भी है। यमुनापार के इलाके अभी तक जल संकट से बचे हुए हैं। पानी से जुड़े मसलों को दिल्ली सरकार का जल बोर्ड देखता है। इस विभाग को मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल स्वयं देखते हैं। लेकिन इसी विभाग की स्थिति सबसे बदतर है। अरविंद ‘असंतुष्ट’ केजरीवाल दिल्ली में लोकसभा चुनाव के कैंपेन के दौरान बहुत दावे कर रहे हैं। कह रहे हैं कि दिल्ली को लंदन बना देंगे। यहां पर लाखों नई नौकरियां पैदा कर देंगे आदि-इत्यादि। लेकिन वे जल संकट के सवाल पर चुप्पी साधे हुए हैं। कह रहे हैं कि दिल्ली सरकार पानी मुफ्त में दे रही है। लेकिन वे यह नहीं बताते कि कितने दिल्ली वालों के घरों में पानी वस्तुतः आता है।

नदी जल बंटवारे पर सभी राज्यों को मिल-बैठकर अपने मसलों-विवादों को हल करना चाहिए था, ताकि नदियों के जल का बंटवारा सही तरह से हो जाए। लेकिन इस सवाल पर भी कोई एक राय बनना दूर की संभावना लगती है। सारा देश जानता है कि कावेरी के जल बंटवारे पर कर्नाटक और तमिलनाडु जानी दुश्मन बन चुके हैं। इसी तरह से पंजाब और हरियाणा सतलुज-यमुना लिंक नहर के जल के बंटवारे पर लंबे समय से किच-किच कर रहे हैं। छतीसगढ़ और ओडिशा महानदी के जल के बंटवारे के मसले पर एक-दूसरे से खफा हैं। दोनों राज्यों का राजनीतिक नेतृत्व कभी मिल-बैठकर मसले को सुलझाने की दिशा में बढ़ नहीं रहा है। छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में भैंसाझार बांध परियोजना से नवीन पटनायक सरकार नाराज है। उसका मानना है कि इस बांध के निर्माण से राज्य के कई इलाकों में सूखे के हालात बनेंगे, पर इस तर्क से छत्तीसगढ़ सरकार सहमत नहीं है। उसका मत है कि वो सिर्फ महानदी का बैक वाटर रोक रही है। फिलहाल दोनों राज्यों की अपनी दलीलें और दावे हैं।

यह तो सर्वविदित है कि भारत में जल का उपयोग कृषि क्षेत्र के लिए बहुत बड़े पैमाने पर होता है। देश में करोड़ों लोग खेती कर रहे हैं। हमें यह तो देखना ही होगा कि पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में धान की फसलें कम से कम उगाई जाएं। धान की खेती में खूब पानी चाहिए होता है। पंजाब और हरियाणा में भूमिगत जल स्तर लगातार नीचे जा रहा है। लेकिन किसान धान की खेती रोक नहीं रहे हैं। यह कतई सही नहीं माना जा सकता है। इन राज्यों को जमीनी हकीकत को समझना चाहिए। धान की खेती के लिए बिहार, बंगाल, ओडिशा जैसे राज्य ही मुफीद हैं, जहां पर बहुत-सी नदियां हैं। इससे साफ है कि जल संकट के मूल में अनेकों कारण हैं। उन कारणों के हल मिल-बैठकर खोजने होंगे, तभी हम अपने को जल संकट से बचा सकेंगे। हालांकि फिलहाल अभी हमारे यहां इस मसले पर कोई जागरूकता पैदा नहीं हो पा रही है। क्या हम नींद से तब उठेंगे जब हमारे कुछ शहरों और राज्यों में केपटाउन जैसी स्थिति बन जाएगी?

इस सन्दर्भ में मैं केंद्र सरकार के परिवहन और जल संसाधन मंत्री नितिन गडकरी के प्रस्ताव से सहमत हूं कि जब पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, गुजरात, हिमाचल पानी के लिए तरस रहे हैं, भारत से निकली सभी नदियों का जल पाकिस्तान जाने से रोक देना चाहिए। यह क्रान्तिकारी कदम है, भारत को खुशहाल करने के लिए भी और पाकिस्तान को बिना लड़ाई तबाह करने के लिए भी।

अंत में एक सुझाव! रसायनिक खादों से की जाने वाली खेती में जितने जल की खपत होती है, उसका मात्र दस प्रतिशत जल चाहिए यदि देसी गाय के गोबर, गौमूत्र, बेसन, गुड़ और मट्ठा को सड़ाकर देसी खाद जल ‘जीवामृत’ बनाकर खेतों को ड्रिप या स्प्रिंकलर से सिंचित किया जाय। इसे कहते हैं आम के आम और गुठली के दाम। लागत भी नहीं के बराबर और 90 फीसदी जल की बचत। लेकिन, शर्त है कि पुठ्ठे और झालर वाली साहिवाल, गिर, थारपारकर, कांकरेज, राठी या गंगातीरी जैसी देसी गायों का गोबर और गौमूत्र ही चाहिए, क्योंकि इसी देसी गाय में खासकर सांढ़ों और बैलों में या दूध नहीं देने वाली गायों के एक ग्राम गोबर में तीन करोड़ से ज्यादा मित्र जीवाणु पाए गए हैं जो खेतों की उर्वरक शक्ति बढ़ाते रहते हैं और जमीन में नमी बनाये रहते हैं। यह शक्ति विदेशी नस्ल की गायों में नहीं है। इसीलिए तो हम गायों को अपनी माता मानते हैं। शास्त्रों में भी कहा गया है, ‘गावो विश्वस्य मातरम्।’

आर.के.सिन्हा

(लेखक राज्यसभा के सदस्य हैं।)

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