हमारी बहुभाषिक और बहुसांस्कृतिक भारतीय राष्ट्र में अन्तर्लयित ‘राम’ एक ऐसा शब्द है जिसे अपने-अपने ढंग से समझने की अनेक कोशिशें हुई हैं और उन कोशिशों में सबके अपने-अपने ‘राम’ हैं। बाल्मीकि के अपने, भवभूति के अपने, तुलसीदास के अपने, गुप्त जी के अपने, निराला जी के अपने और न जाने कितने-कितनों के अपने-अपने ‘राम’ हैं ! निर्गुनिये संत कबीर और रैदास के भी अपने ‘राम’ हैं। केशवदास के अपने राम हैं, कुलोतुंग, चीरामन, गिरधरदास सबके अपने-अपने। राम न ‘एक’ हैं और न किसी एक के हैं। राम एक ‘शब्द’ है जिसमें सबने अलग-अलग रंग भरे हैं। बाल्मीकि के राम वही नहीं हैं जो भवभूति के हैं और भवभूति के राम वही नहीं हैं जो तुलसीदास के हैं और न तुलसीदास के राम वही हैं जो निराला के हैं। इसी तरह गाँधी के भी अपने राम हैं।
राम भारतीय चिंतन और जीवन की मूल्यवान सांस्कृतिक उपलब्धि हैं। राम के जन्म लेने पर तुलसीदास ने सबसे पहले यही कहा है कि ‘भये प्रकट कृपाला दीन दयाला।’ यानी दुखियों पर दया रखने वाले कृपालु प्रकट हुए हैं। आज कृपालु राम अपने इतिहास के सर्वाधिक संकट के दौर से गुज़र रहे हैं। राम की पहचान बड़ी तेजी से बदली जा रही है। उन्हें जानने और पहचानने वालों की संख्या अब अयोध्या में भी तेजी से घटती जा रही है। भारतीय समाज अपने सांस्कृतिक जीवन की सबसे मूल्यवान उपलब्धि को बड़ी तेजी से खोने के करीब पहुँचता जा रहा है।
तुलसीदास ने राम और राम कथा को अपने ‘रामचरितमानस’ से जनमानस के बीच लोकप्रिय बनाया। लोकप्रियता का आलम ऐसा कि जिन भारतीयों को अक्षर ज्ञान नहीं था, उनके कंठों में भी रामचरितमानस के सैकड़ों छंद बसे थे। जिन भारतीयों को अंग्रेजों ने गिरमिटिया मज़दूर बनाकर दक्षिण अफ्रीका के जंगलों में भेज दिया था, वे अपने कंठों में बसे मानस के उन्हीं छंदों के सहारे दारुण जीवन के सैकड़ों साल गुज़ार पाये थे। रामचरित मानस के छंदों ने गिरमिटिया मज़दूरों को अँधेरे में डूबे अफ्रीका के जंगलों में अवसादग्रस्त होने से बचाया था। आज वही रामचरितमानस अपनी पहचान के संकट में पड़ा हुआ है। आज पढ़े-लिखों को भी रामचरितमानस के दो-चार छंद सही से नहीं मालूम और नहीं मालूम अपने राम के बारे में सही से।
प्रेस के विकास के साथ रामचरितमानस के विस्तार का स्वरुप यह था कि लगभग हर हिन्दू घरों में लाल कपड़े में मानस का एक गुटका लिपटा रहता था। आज मानस के लिए हिन्दू घरों के दीवट खाली पड़े हैं। हिन्दू किसान दिन भर के काम-काज से फुर्सत पाकर संध्या समय मानस का पारायण करते थे और हिन्दू स्त्रियाँ सुन्दर काण्ड का पाठ किये बिना तो दिन का भोजन तक नहीं करती थीं। आज नई पीढ़ी टेलीविजन पर राम मंदिर निर्माण की चर्चा, रामनवमी के जलसे या रामायण धारावाहिक से राम को जानती है। आज की पीढ़ी राम पर कोई बात तुलसीदास के रामचरित मानस या बाल्मीकिकृत रामायण या किसी अन्य राम कथा के मूल पाठों के संदर्भों से नहीं करती, बल्कि राम-मंदिर और बाबरी-मस्ज़िद के नैरेटिव से करती है। राम संबंधी चर्चा के लिए रामायण और रामचरितमानस आदि ग्रन्थ अनुपयोगी सिद्ध होते जा रहे हैं।
व्यक्ति और व्यक्ति के ‘राम’ को लेकर जो अंतर है, वह व्यक्ति की अपनी-अपनी सीमा है। हम जो जानते हैं, वह हमारी सीमा है और हम जो जानना चाहते हैं वह हमारा विस्तार है। शास्त्रों में जितने ‘राम’ रचे गये हैं, उससे कहीं कम लोक में नहीं रचे गये हैं। राम की रचना में जितना महत्व शास्त्रज्ञों का है, उतना ही महत्त्व अपढ़ों का भी है। राम की रचना में दोनों का महत्त्व समतुल्य है। शास्त्रों ने ‘राम’ को जितनी गहराई दी है, लोक ने ‘राम’ को उतना ही विस्तार दिया है।शास्त्र और लोक दोनों ‘राम’ के ही नहीं, मनुष्य जाति के भी दो छोर हैं। सबकी अपनी-अपनी गति है और जिसकी गति शास्त्र और लोक दोनों में है, उसके अपने ‘राम’ हैं। तुलसीदास शास्त्र और लोक दोनों को साथ लेकर अपने ‘राम’ को रचते हैं। उनके सामने विविध ‘राम’ थे और विविध ‘रामों’ की कथा भी थी। तभी तो वे कहते हैं ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता।’ तुलसीदास सबको समेटकर चलते हैं। वे न तो शास्त्र को छोड़ते हैं, न लोक को। जो आज शास्त्र और लोक दोनों को तज कर चल रहे हैं; फिर भी मज़े की बात यह कि तुलसीदास को साथ लिए फिरते हैं, आज उनके भी अपने ‘राम’ हैं !
तुलसीदास आज ऐसे लोगों की वज़ह से ही कटघरे में खड़े हैं और उन्हें क़बूल फ़रमाने के लिये खड़ा किया गया है कि आपने लिखा है ‘बाबर बर्बर आइके, कर लीन्हें कर वाल। हरे पचारि पचारि जन, तुलसी काल कराल।’ एक अदालती हलफनामा में इस दोहा के साथ कुछ और दोहे पेश किये गये कि अयोध्या में ‘राम’ मंदिर तोड़कर मस्ज़िद बनाने की बात स्वयं तुलसीदास ने कही है। सबूत के तौर पर पेश किये गये इन दोहों के बारे में कहा गया कि ये दोहे ‘श्री तुलसी दोहा शतक’ नाम की किसी पुस्तक में हैं जिसकी रचना स्वयं तुलसीदास ने की है। अब तुलसीदास क्या कहें, क्या करें ? जो लिखा ही नहीं और जो कहा ही नहीं, उसे किस मुँह से कबूल करें !
तुलसीदास की प्रामाणिक रचनाओं में मंदिर-मस्ज़िद के झगडों पर कहीं भी कुछ नहीं है। यदि वे ऐसा चाहते तो बहुत कुछ लिख सकते थे। इसके अवसर भी बहुत थे, पर कहीं नहीं लिखा। जो नहीं लिखा, उसे ही सबूत के तौर पर अदालत में पेश कर दिया गया। तुलसीदास चुप हैं और उनसे पूछा जा रहा है कि तुलसीदास ! ये लिखे जब तुम्हारे हैं, तो चुप क्यों हो ? ये तुम्हारे ही तो लिखे हैं। चार शतक पहले ये ‘दोहा शतक’ लिखे हो तुलसीदास ! संभव है कि इतने सालों बाद कुछ भूल भी गये होगे। अपनी स्मृतियों पर जोर डालो तुलसीदास ! कुछ बोलो ! कुछ तो बोलो तुलसीदास ! हमारे ‘ श्री राम’ का सवाल है। तुलसीदास फिर भी चुप। तुलसी भला यह कैसे कहते कि सबके अपने-अपने ‘राम’ हैं ! तुलसीदास संकट में हैं। जब राम के तुलसी संकट में हैं, तो हे राम ! आप सचमुच संकट में हैं।
गजेंद्र शर्मा
लेखक, पटना विश्वविद्यालय से हिंदी में स्नातकोत्तर एवं शोधोपाधि प्राप्त हैं। सम्प्रति प्रगतिशील लेखक संघ से संबद्ध हैं।