नयी हिंदी के नाम पर….

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नयी हिंदी के नाम पर….

बात कई वर्षों से चली आ रही है। हिंदी को सहज, सरज और सुग्राह्य बनाने के नाम पर, लोकप्रिय बनाने के नाम पर, उसे क्लिष्टता से मुक्त कराने के नाम पर किसी भी भाषा के साथ (यहां हिंदी) बलात्कार पर आमादा लोग अब इस हद तक उतर आए हैं कि व्याकरण तक को बेमानी बता रहे हैं (वैसे, मेरी जानकारी के मुताबिक अब अंग्रेजी स्कूलों में व्याकरण को कालबाह्य बता दिया जा रहा है, अंग्रेजी के भी बोलने पर ही ज़ोर है, लिखने पर नियमों की अनदेखी की जा रही है)। बात लंबी होगी, लेकिन आजकल जो बहस चल रही है, उस पर बिंदुवार कुछ कहूंगा।

रेणु और मनोहरश्याम जोशी का उदाहरण

रेणु और मनोहरश्याम जोशी का उदाहरण खूब दिया जाता है, गोया उन्होंने व्याकरण की सत्ता न मानी हो। यहां शैली की चंचलता को व्याकरण के परित्याग से तुलित किया जाता है, ऐसा मेरा मानना है। रेणु हों या परसाई, तुलसी हों या निराला, उन्होंने अपने पात्रों की भाषा बोली है। अपने किस लेखन में उन्होंने व्याकरण की मर्यादा नहीं मानी है, ज़रा मुझे बताया जाए। आंचलिक प्रभाव को लेखन में लाना अलग बात है, उसके नाम पर अपने अज्ञान को महान लेखकों के साए में छुपाना अलग बात है और उस पर बहस करते जाना बिल्कुल ही अलग बात है।
मेरा कलम हो या मेरी कलम

मेरा कलम हो या मेरी कलम हो, इसे तय क्यों करना चाहिए? यह सवाल आया। यह बिल्कुल ही हास्यास्पद, अतिरेकी और अहमन्यता से भरा सवाल है। आम को आम क्यों कहा जाए, गधे को गधा क्यों और चारपाई को पंखा क्यों न कहें? मेरा कलम या मेरी कलम में भ्रमित होने या कुछ भी बोलने का अधिकार एक अशिक्षित व्यक्ति को है, प्रभात रंजन सर, पुष्यमित्र जी या व्यालोक को नहीं है, क्योंकि इन्होंने अपनी ज़िंदगी के कुछ वर्ष पढ़ाई में झोंके हैं और सबसे बड़ी बात कि कई लोग इनका लिखा पढ़ते हैं, उसे मानक मानते हैं।
3. सवाल उठता है, कौन सी हिंदी? मैं हिंदी की जगह भाषा कर देता हूं? वह भाषा जो परिनिष्ठित है, लिखित है, साहित्यिक है, पत्रकारीय है। वह भाषा जिसका एक स्वरूप तय है (और यह स्वरूप काफी बहस के बाद, आचार्यों ने तय किया है, उसे बदलना भी आपका काम नहीं…उस पर खैर, फिर कभी)। मेरठ से लेकर दरभंगा औऱ भोपाल से लेकर फिजी तक, क्रिया और संज्ञा से लेकर, समास और संधि तक, लिंग और अलंकार से लेकर विंब और शैली तक काफी कुछ समय की शिला पर घिसकर तय हुआ है, उसे यूं ही बेहंगम तरीके से जाया नहीं किया जा सकता है।

व्याकरण कौन तय करेगा
व्याकरण कौन तय करेगा? आचार्य तय करेंगे, जिनको ज्ञान है, धातु का, शब्दों के मूल का, कृदन्त का और किसी भी भाषा के बनने-संवरने का। अज्ञेय ने करीबन 200 नए शब्द बनाए, उनमें से करीबन 50 शब्दों को हिंदी समाज और साहित्य ने स्वीकारा, बाकी नहीं चले। ‘अस्मिता’ भी उन्हीं का दिया हुआ शब्द है और यह व्याकरणिक तौर पर अशुद्ध है, सही शब्द ‘अस्तिता’ होना चाहिए, पर इसे लोगों ने स्वीकारा तो यह आज सर्व-प्रचलित है। खुद मेरा नाम ‘व्यालोक’ गढ़ा हुआ है, पूरी दुनिया में अकेला नाम है, क्योंकि मेरे पिता ने इसे बनाया है, गढ़ा है …यह लेकिन व्याकरणिक और भाषिक तौर पर शुद्ध है। तो भैया, पहले अज्ञेय तो बनिए, आचार्य तो बनिए, इतनी हड़बड़ी क्यों है, भाषा को तोड़ने की।

नियमों में जकने से होगी मृत

नियमों में जितना जकडे़ंगे उतना ही कोई भाषा मृत होगी, जैसे संस्कृत, यह एक तर्क आता है। यह फिर से गलत तर्क है। संस्कृत को आप बाज़ार दीजिए, वह अपने तमाम नियमों के साथ जीवंत हो जाएगी। जर्मन भाषा मैंने पढ़ी है, वह बिल्कुल संस्कृत की तरह व्याकरणिक नियमों से आबद्ध है, लेकिन उसका बाज़ार है, तो वह जीवंत है। आप पंजाबी को देख लीजिए औऱ भोजपुरी-मैथिली को देखिए। कोई भी भाषा महान या खराब नहीं होती। पंजाबी के पास बाज़ार है, मैथिली के पास नहीं, तो मैथिली भी उन छात्रों के लिए डिग्री मात्र का साधन है, जो वैसे कहीं उत्तीर्ण नहीं होते।
6. बातें बहुतेरी हैं, फिलहाल अंतिम बात और अपील यही है कि अपनी अज्ञानता को बड़े लोगों के नामों के तले, आंचलिकता के तले और सरलता-सहजता के तले न छिपाएं। कई नामचीनों के आलेख देखे हैं, जब दैनिक भास्कर में था। पांच वाक्य सीधा नहीं लिख पाते हैं, अशुद्ध लिखते हैं, गलतियों की भरमार रहती है, लेकिन आज वे महान पत्रकार हैं, आलोचक हैं, लेखक हैं, देश के कर्णधार हैं। प्रभुओं! ज़रा यह बताइए कि यदि आपको चलना नहीं आएगा, तो 100 मीटर रेस की बात भला कैसे करेंगे? आप जिस भाषा के लिक्खाड़ खुद को बताते हैं, उस भाषा का मूलभूत ज्ञान अगर आपको नहीं, तो फिर उसकी संप्रेषणीयता और सहजता-सरलता का ठेका मत लीजिए, दयानिधान। और हां, सहजता का मतलब बलात्कार नहीं होता, छूट का मतलब अराजकता नहीं होता।
इत्यलम्……

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