फानी तूफानः आफत की आपदा

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मौसम विभाग की सटीक भविष्यवाणी और आपदा प्रबंधन के समन्वित प्रयासों के बावजूद फानी चक्रवाती तूफान के तांडव से 12 लाख लोग प्रभावित हो गए हैं। तूफान आने के दो दिन पहले ही ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने प्रशासन को सचेत करके दस हजार गांवों और 52 कस्बों से लोगों को निकालकर 4,852 राहत शिविरों में पहुंचा दिया था। 604 गर्भवती महिलाओं की पहचान कर उन्हें उनके घरों से निकालकर सुरक्षित केंद्रों और प्रसूति गृहों में पहुंचाया गया। भुवनेश्वर के रेलवे अस्पताल में 32 वर्षीय महिला ने बच्ची को जन्म दिया, जिसका नाम बच्ची की मां ने फैनी रखा है। इनके खानपान के लिए चार हजार रसोईयां भी बनाई गई। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी अपने कई चुनावी दौरे रद्द करके राहत कार्यों को प्रथामिकता दी। इस वजह से तबाही तो मची लेकिन जनहानि कम हुई। इसके लिए ये दोनों ही नेता अभिनंदन के पात्र हैं।

अभी भी भारी बारिश के चलते ज्यादातर नदियों ने अपने किनारे लांघकर करीब 19 जिलों की आबादी पर कहर बरपा रखा है। भगवान जगन्नाथ की नगरी पुरी के तट से टकराने के बाद चक्रवाती तूफान खुर्दा, कटक, गंजाम, केंद्रपाड़ा, जाजपुर, भद्रक व बालासोर की ओर बढ़ गया। यहां से यह पश्चिम बंगाल का रुख कर गया। कोलकाता में आपदा की यह आफत भारी बारिश में बदल गई और फानी नाम का यह तूफान कमजोर पड़ने लग गया है। इन दोनों राज्यों के अलावा आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और पुड्डूचेरी में भी तूफान के असर से लाखों परिवार प्रभावित हुए हैं। पिछले पांच साल में आए सबसे बड़े इस चक्रवाती फानी की रफ्तार 180 से 245 किमी प्रतिघंटा रही। नतीजतन, 2000 से भी ज्यादा पेड़ उखड़ गए। 220 रेलें रद्द करनी पड़ीं। कई हवाई उड़ानें रद्द करने के साथ कोलकाता हवाई अड्डा भी बंद कर दिया गया। तीन लोगों की मौत हुई।

इस तूफान का असर पूरे एशिया में अनुभव किया गया है। राजस्थान के सीमावर्ती इलाकों से यह पाकिस्तान को भी प्रभावित कर रहा है। इसका असर चीन, बांग्लादेश, नेपाल और भूटान पर भी है। पूरे हिमालयी क्षेत्र में बर्फबारी हो रही है। तेज हवा चलने के कारण माउंट एवरेस्ट पर 21,000 फुट की ऊंचाई पर पर्वतारोहियों के 20 शिविरों को भारी नुकसान हुआ है। बांग्लादेश में पेड़ गिरने से एक महिला की मौत हो गई, वहीं एक बांध टूटने से 14 लोग बह गए। इस परिप्रेक्ष्य में हमारी तमाम एजेंसियों ने आपदा का कुशलतापूर्वक सामना करके एक भरोसेमंद मिसाल पेश की है, जो सराहनीय व अनुकरणीय है।

दरअसल, बंगाल की खाड़ी के ऊपर बने गहरे दबाव का क्षेत्र तीव्र होकर चक्रवाती तूफान फानी में बदल गया था। बांग्ला भाषा में फानी का अर्थ सांप का फन होता है। इस बार तूफान का नाम बांग्लादेश ने दिया है। मुख्य रूप से इस शब्द का प्रयोग विध्वंस, घातक एवं विनाशक होता है। यह तूफान ओडिशा में गोपालपुर से 530 किमी दक्षिण पूर्व में और आंध्र प्रदेश में कलिंगपट्नम से 480 किमी पूर्व दक्षिण पूर्व में केंद्रित था। इसके उठने का अनुमान लगाकर मौसम विभाग ने ओडिशा और अन्य तटवर्ती प्रदेशों में भयंकर बारिश और तेज हवाएं चलने की आशंकाएं जताई थीं। तूफान से हुई हानि के आकलन के लिए नौसेना के टोही विमान पी-81 और डाॅर्नियर को सर्वेक्षण में लगा दिया गया है।

भारतीय मौसम विभाग के अनुमान अकसर सही साबित नहीं होते, इसलिए उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठते रहे हैं। किंतु अब समझ आ रहा है कि मौसम विभाग, आपदा का सटीक अनुमान लगाकर समाज और प्रशासन तंत्र को आपदा से जूझने की पूर्व तैयारियों में लगाने में समर्थ हो गया है। अन्यथा 29 अक्टूबर 1999 को ओडिशा आपदा से जूझने में सक्षम नहीं था इसीलिए 260 किमी प्रतिघंटा की गति से आए तूफान ने 10000 लोगों को लील लिया था। किंतु इसबार चेतावनी मिलने के साथ ही शासन-प्रशासन और समाज ने जागरुकता व संवेदनशीलता बरतते हुए जानमाल की ज्यादा हानि नहीं होने दी। फेलिन, हुदहुद और तितली चक्रवाती तूफान से जुड़ी भविष्यवाणी सटीक बैठी हैं। दरअसल, जलवायु परिवर्तन और आधुनिक विकास के कारण देश ही नहीं, दुनिया आपदाओं की आशंकाओं से घिरी हुई है। ऐसे में आपदा प्रबंधन की क्षमताओं और संसाधनों को हमेशा सचेत रहने की जरूरत है।

हमारे मौसम विज्ञानी सुपर कंप्यूटर और डापलर राडार जैसी श्रेष्ठतम तकनीक के माध्यम से चक्रवात के अनुमानित और वास्तविक रास्ते का मानचित्र एवं उसके भिन्न क्षेत्रों में प्रभाव के चित्र बनाने में भी सफल रहे हैं। तूफान की तीव्रता, हवा की गति और बारिश के अनुमान भी कमोबेश सही साबित हुए। इन अनुमानों को और कारगर बनाने की जरूरत है, जिससे बाढ़, सूखे, भूकंप, आंधी और बवंडरों की पूर्व सूचनाएं मिल सकें और सफलतापूर्वक इनका सामना किया जा सके। साथ ही मौसम विभाग को ऐसी निगरानी प्रणालियां भी विकसित करने की जरूरत है, जिनके मार्फत हर माह और हफ्ते में बरसात होने की राज्य व जिलेवार भविष्यवाणियां की जा सकें। यदि ऐसा मुमकिन हो पाता है तो कृषि का बेहतर नियोजन संभव हो सकेगा। साथ ही अतिवृष्टि या अनावृष्टि के संभावित परिणामों से कारगर ढंग से निपटा जा सकेगा। किसान भी बारिश के अनुपात में फसलें बोने लग जाएंगे। लिहाजा, कम या ज्यादा बारिश का नुकसान उठाने से किसान मुक्त हो जाएंगे। मौसम संबंधी उपकरणों की गुणवत्ता व दूरंदेशी होने की इसलिए भी जरूरत है क्योंकि जनसंख्या घनत्व की दृष्टि से समुद्रतटीय इलाकों में आबादी भी ज्यादा है और वे आजीविका के लिए समुद्री जीवों पर निर्भर हैं। लिहाजा, समुद्री तूफानों का सबसे ज्यादा संकट इसी आबादी को झेलना पड़ता है। इस चक्रवात की सटीक भविष्यवाणी करने में निजी मौसम एजेंसी स्काईमेट कमोबेश नाकाम रही है।
1999 में ओडिशा में जब नीलम तूफान आया था तो सटीक भविष्यवाणी नहीं होने और आपदा प्रबंधन की कमी के चलते हजारों लोग इसके शिकार हो गए थे। 12 अक्टूबर 2013 को उष्णकटिबंधीय चक्रवात फैलिन ने ओडिशा के तट पर दस्तक दी थी। अंडमान सागर में कम दबाव के क्षेत्र के रूप में उत्पन्न हुए नीलम ने 9 अक्टूबर को उत्तरी अंडमान-निकोबार द्वीप समूह पार करते ही एक चक्रवाती तूफान का रूप ले लिया था। इसने सबसे ज्यादा नुकसान ओडिशा और आंध्र प्रदेश में किया था। इस चक्रवात की भीषणता को देखते हुए 6 लाख लोग सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाए गए थे। तूफान का केंद्र रहे गोपालपुर से तूफानी हवाएं 220 किमी प्रतिघंटे की रफ्तार से गुजरी थी। 2004 में आए सुनामी तूफान का असर सबसे ज्यादा इन्हीं इलाकों में देखा गया था। हालांकि हिंद महासागर से उठे इस तूफान से 14 देश प्रभावित हुए थे। तमिलनाडु में भी इसका असर देखने में आया था। इससे मरने वालों की संख्या करीब 2 लाख 30 हजार थी। भारतीय इतिहास में इसे एक बड़ी प्राकृतिक आपदा के रूप में देखा जाता है।

8 और 12 अक्टूबर 2014 को आंध्र एवं ओडिशा में हुदहुद तूफान में भी भयंकर कहर बरपाया था। इसकी दस्तक से इन दोनों राज्यों के लोग सहम गए थे। भारतीय नौसेना एनडीआरएफ ने करीब 4 लाख लोगों को सुरक्षित क्षेत्रों में पहुंचाकर उनके प्राणों की रक्षा की थी। इसलिए इसकी चपेट आने से केवल छह लोगों की ही मौत हुई। हालांकि आंध्र प्रदेश में सबसे ज्यादा तबाही 1839 में आए कोरिंगा तूफान ने मचाई थी। गोदावरी जिले के कोरिंगा घाट पर समुद्र की 40 फीट ऊंची उठी लहरों ने करीब 3 लाख लोगों को निगल लिया था। समुद्र में खड़े 20,000 जहाज कहां विलीन हुए पता ही नहीं चला। 1789 में कोरिंगा से एक और समुद्री तूफान टकराया था, जिसमें लगभग 20,000 लोग मारे गए थे।

कुदरत के रहस्यों की ज्यादातर जानकारी अभी अधूरी है। जाहिर है, चक्रवात जैसी आपदाओं को हम रोक नहीं सकते लेकिन उनका सामना या उनके असर को कम करने की दिशा में बहुत कुछ कर सकते हैं। भारत के तो तमाम इलाके वैसे भी बाढ़, सूखा, भूकंप और तूफानों के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं। जलवायु परिवर्तन और प्रदूषित हो रहे पर्यावरण के कारण ये खतरे और इनकी आवृत्ति लगातार बढ़ रही है। कहा भी जा रहा है कि फेलिन, ठाणे, आइला, आईरिन, नीलम और सैंडी जैसी आपदाएं प्रकृति की बजाय आधुनिक मनुष्य और उसकी प्रकृति विरोधी विकास नीति का पर्याय हैं। गौरतलब है कि 2005 में कैटरीना तूफान के समय अमेरिकी मौसम विभाग ने इस प्रकार के प्रलयंकारी समुद्री तूफान 2080 तक आने की आशंका जताई थी लेकिन वह सैंडी और नीलम तूफानों के रूप में 2012 में ही आ धमके। 17 साल पहले ओडिशा में सुनामी से फूटी तबाही के बाद पर्यावरणविदों ने यह तथ्य रेखांकित किया था कि अगर मैग्रोंव वन बचे रहते तो तबाही कम होती। ओडिशा के तटवर्ती शहर जगतसिंहपुर में एक औद्योगिक परियोजना खड़ी करने के लिए एक लाख 70 हजार से भी ज्यादा मैंग्रोव वृक्ष काट डाले गए थे।

दरअसल, जंगल एवं पहाड़ प्राणी जगत के लिए सुरक्षा कवच हैं, इनके विनाश को यदि नीतियों में बदलाव लाकर नहीं रोका गया तो तय है कि आपदाओं के सिलसिलों को भी रोक पाना मुश्किल होगा। लिहाजा नदियों के किनारे अवासीय बस्तियों पर रोक और समुद्र तटीय इलाकों में मैंग्रोव के जंगलों का सरंक्षण जरूरी है।

प्रमोद भार्गव
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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